जय हनुमान जी महाराज की! साथियो आज हम इस ब्लॉग के ज़रिये जानेगे की हनुमान जी का जन्म कब और कैसे हुआ?
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वायु देव की विमल कृपा से अंजना गर्भवती हुई और एक गुफा में श्री हनुमान जी को जन्म दिया। कल्प भेद से कुछ लोक कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को भी हनुमान जी का अवतरण मानतें हैं । परन्तु बाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण आदि ग्रंथों में लिखा है कि भगवान शिव के ग्यारहवें अवतार 58 हजार 112 वर्ष पहले त्रेतायुग के अन्तिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे (विकिपीडिया के अनुसार) पृथ्वी पर हनुमान जी का जन्म हुआ!
अब आप “हनुमान जी का जन्म कब और कैसे हुआ” तो जान ही चुके है!
हनुमान जी के जन्म की कहानी
श्री बाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी के जन्म की कहानी इस प्रकार है!
शचीपति इंद्र की समस्त अप्सराओं में पुंजिकस्थला नाम की अप्सरा अतिशय रूपमती और गुणवती थी। एक बार उन्होंने श्री दुर्वासा ऋषि का उपहास कर दिया। क्ुद्ध-ऋषि ने उसे श्राप देते हुए कहा-” वानरी की भंति चंचला, तू वानरी हो जा।” ऋषि का भीषण श्राप सुनते ही पुंजिकस्थला भयभीत हो उठी और ऋषि के चरणों में लोटती हुई दया की भीख मांगने लगी। सहज कृपालु ऋषि द्रवित हो उठे :
“मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता। वानरी तो तुम्हें होना ही होगा। किंतु तुम इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ रहोगी! अर्थात् तुम जब चाहो वानरी और जब चाहो मानवी वेष में रह सकोगी।’
इस प्रकार ऋषि के श्राप से पुंजिकस्थला ने कपि योनि में वानर राज महामनस्वरी कुंजर की कामरूपिणी कन्या के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया। वहीं कुंजर पुत्री कपिश्रेष्ठ केसरी की भार्या हो कर ‘अंजना’ नाम से विख्यात हुईं। कपिराज केसरी माल्यवान पर्वत पर शासन करते थे। एक दिन वह गोकर्ण पर्वत पर गये। पश्चिमी समुद्र की ओर से मलावार पर्वत के निकट स्थित वह गोकर्ण पर्वत बड़ा ही पावन और रमणीक तीर्थ स्थल था। वहां तप में लगे ऋषियों को शंबसादन- नामक एक दैत्य अपार यंत्रणाएं देता था। देवंर्षियों की आज्ञा से उन्होंने शंबसादन का संहार किया और उनसे संतान सुख की प्राप्ति का वर पाया था। समस्त सुविधाओं से सम्पन्न इसी सुंदर पर्वत पर अंजना अपने पतिदेव के साथ सुखपूर्वक निवास करती थी। सुखपूर्वक बहुत दिन बीत गये, पर उनके कोई संतान नहीं हुई।
स्कंद पुराण (वैष्णव खंड) के अनुसार, दुखी अंजना महामुनि मतंग के निकट जाकर कातर स्वर में कहने लगी : ‘मुनीश्वर। मेरा कोई पुत्र नहीं है। आप कृष्या मुझे पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय बताकर अनुगृहीत कीजिए।’ तपोधन मतंग मुनि ने अंजना से कहा : “तुम सीधे वृषभांचल (वेंकटाचल) पर जाकर वहां के पुष्करिणी तीर्थ में स्नान कर, भगवान बेंकटेश्वर के मुक्तिदायक श्री चरणों में अपना प्रणाम निवेदित करो।
घुनः वहां से कुछ ही दूरी पर स्थित आकाश गंगा नाम तीर्थ पर जाकर तप करो और उसका परम पावन जल पी कर वायु देव को प्रसन्न करो। ऐसा करने से तुम्हें देव, दानव और मनुष्य से अजेय तथा अस्त्र-शस्त्रादि से भी अवैध्य अनुपम पुत्र प्राप्त
होगा।!
देवी अंजना ने, महामुनि के आदेशानुसार, वृषभाचल की पुष्करिणी में स्नान कर, वेंकट और वराह भगवान् के श्री चरणों को अनन्य आंतरिक भक्ति के साथ, बंदना की। तदनंतर उन्होंने आकाश गंगा तीर्थ में स्नान कर उसके जल का पान किया। फिर बह उसके तट पर तीर्थ कौ ओर अभिमुख होकर अत्यन्त श्रद्धा, विश्वास एवं धैर्यपूर्वक तपोरत रही और कायिल क्लेशों की किंचित भी चिंता न कर अखंड तप करती रही।
भगवान् भास्कर मेष राशि पर थे। चित्रा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा तिथि थी। अंजना के ‘कठिन तपश्चरण से तुष्ट पवन देव ने प्रकट होकर अंजना से कहा – ‘देवी! मैं तुम्हारे तप से प्रसन हूँ। तुम इच्छित वर मांगो, मैं अवश्य प्रदान करूँगा।’ पवन देव के प्रत्यक्ष दिव्य दर्शन प्राप्त कर प्रफुल्वमना अंजना उनके श्री चरणों में अपने प्रणाम निवेदित कर विनीत स्वर में बोली : ‘महाभाग! मुझे उत्तम पुत्र प्रदान करने का अनुग्रह कीजिए।’
प्रसन्न पवन देव ने कहा : ‘सुमुखि ! चैत की पूनो के दिन मैं ही तुम्हारा पुत्र बन कर तुम्हें जगत में प्रसिद्ध कर दूंगा।’
मनोबांछित वर प्राप्त कर अंजना देवी कौ प्रसन्नता का कोई पारावर नहीं रहा। अपनी प्राणप्रिया कौ बर प्राप्ति का संवाद प्राप्त कर कपिराज केसरी भी परम प्रमुदित हुए!
‘एक दिन परम लावण्यवती, विशाल लोचना माता अंजना ने दिव्य श्रृंगार किया। उनके मनोरम शरीर पर पीतवर्णा साड़ी अत्यंत शोभायमान थी। साड़ी का किनारा लाल रंग का था। वह विविध सुरभित सुमनों के अनुपम आभूषणों से, साक्षात् ‘लौकिक सौंदर्य का विमल विग्रह प्रतीत हो रही थी।
पर्वत शिखर पर खड़ी माता अंजना प्राकृतिक सुषमा का अवलोकन कर मन ही मन मुदित हो रही थी कि सहसा उनके मन-प्राणों में कामना उदित हुई। “कितना अच्छा होता, यदि मेरा एक सुयोग्य पुत्र होता।’ अचानक वायु का तीव्र झोंका आया और अंजना की साड़ी का आंचल कुछ खिसक गया। उनके अंग अनावृत्त हो गये।
सहमती हुई सती अंजना ने अपना वस्त्र संभाला और कुपित स्वर में बोल उठी : “कौन दुरात्मा मेरे पातित्रत्य पर प्रहार करना चाह रहा है ?’ वह श्राप देने के उद्यत हो उठी।
सती साध्वी अंजना को कुपित देख कर तत्क्षण पवन देव प्रकट हो गये और कहा : सुश्रोणि! मैं तुम्हारे पातित्रत्य को विक्षत नहीं कर रहा हूँ। अतः तुम्हारा भय व्यर्थ है। मैंने अव्यक्त रूप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के द्वारा तुम्हें बल-पराक्रम से विभूषित कर विलक्षण विवेकशील पारक्रमी पुत्र प्रदान किया है। हे. ‘कमलाक्षी ! मैंने तुम्हारे साथ केवल हृदय संगम किया है, जिससे तुम्हारा शील खंडित न हो। तुम्हारा पुत्र महान, धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी तथा लांघने
और छलांग मारने में मेरे ही सद्रश होगा।
माता अंजना प्रसन्न हो गयी और उन्होंने पवन देव को क्षमा कर दिया। वायु देव की विमल कृपा से अंजना गर्भवती हुई और एक गुफा में श्री हनुमान जी का जन्म हुआ।
कल्प भेद से कुछ लोक कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को भी हनुमान जी का अवतरण मानतें हैं । परन्तु बाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण आदि ग्रंथों में लिखा है कि भगवान शिव के ग्यारहवें अवतार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार को श्री हनुमान जी
पृथ्वी पर अवतरित हुए।
भगवान शिव के ग्यारहवें रद्वावताए, मास्तात्मज, केसर नंदन, अंजना पुत्र के पृथ्वी पर चरण रखते ही प्रकृति में ऋतु परिवर्तन हो गया। सर्वत्र रम्यता विराजने लगी। दिशाएं प्रसन्न हो गयी। सूर्य देव की किरणों में अवर्णनीय स्निग्धता और मूदुतता भर गयी।
सरिताओं में स्वच्छ सलिल बहने लगा। पर्वत उत्सुक आंखों से आंजनेय के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रमुदित प्रात क्रौड़ारत हो उछल-कूद कर रहे थे। बन-उपबनों और बाग-वाटिकाओं में विविध वर्ण के मनोहर पुष्प खिल उठे थे। उन पर भौरे गुंजार कर रहे थे। मंद सुगंध वायु मंथर गति से डोल रही थी।